जेठ की उमस भरी दुपहरी
बेचैन-सी कजरी
हाय रे... बनाती अमीरों के महले-दुमहले
झोपड़ी मयस्सर न तुझे रे कजरी
पेड़ पर टांगा है पुरानी धोती का पालना
जिस पर झुलता है तेरा लालना
तेरे माथे के पसीने की टपकती बूंदे
यौवन को देती इक नई चमक
सिर पर गारे की तगाड़ी संभाले इक हाथ
दुसरे हाथ में मलिन चिथड़े का पल्लू
क्या संभाले वो?
पहले में भूखे बच्चे की रोटी
दुसरे में अस्मिता है सिमटी
जितती है मां... हारती यौवना
करती वो परवाह किसकी...
देता उसे क्या जमाना?
भूखे गिद्ध-सी नज़रे और हवस का नज़राना !...
नहीं वो सिर्फ यौवना...
इक मां भी है जिसे पूजता सारा जमाना
अश्रु
समय का एक पल
चुभ गया हृदय में शूल बनकर
असह्य वेदना देख हृदय की
अश्रु हुआ विह्वल
घड़ी यह उसकी परीक्षा की
खुली पलकों की खिड़की
नम पुतलियों का छूटता आलिंगन
काजल की चौखट को कर पार
ठपकी बूंद बनकर कपोल पर
चुभ गया यह
विरह का एक पल बनकर
हरा रहेगा घाव सदा अश्रु का
कपोल पर सूख भले ही बूंद जाए
साहिल
बहते दरिया के मौजों ने की हंसी
न जाना खिलखिलाहट ने दर्द-ए-साहिल
ये इश्क भी कैसा
कि... दीदार का तो इकरार है
पर... ताउम्र न मिलने की इक कसम
मौजों से कह दो
कह दो कि दरिया की गहराई का गुरूर न करे
ग़म-ए-आशिकी में साहिल के
अश्क़ इतने बह जाएंगे
कि... दरिया दुजा बहता देख
मौजें भी शर्मसार हो जाएंगी
बनकर खुद साहिल
साहिल की आशिकी को अंजाम तक पहुंचाएंगी
बेवफाई
इश्क का सफर ये कैसा
ना शुरू की ख़बर
ना आखिर का गुमां
हो रास्ते में आपका साथ
था बस यही एक अरमां
सुना था...
हर रिश्ते का जरूरी होता है इक नाम
आप माशूक हैं हमारे
हमने भी कह डाला सरेआम
पड़ते ही नाम हुआ ये अंजाम
कि बाकी है अब पकड़ना महज इक जाम
बड़े-बुढ़े ठीक कहा करते
सुनी-सुनाई बातों पर यकीन ना कर
अच्छी भली ख़्वाहिश
आज बेवफा-सी तो ना लगती
बेबसी
दरख़्त की ये बेबसी
पीले पड़ते पत्तों ज़िंदगी
टूटे जो साख से
दर्द की ये इंतहा थी
हाथ
न देख इन हाथों को
इस कदर हिकारत से
गर मिल जाए एक पत्थर भी इसे
भगवान बना देते हैं
सजदा करता है तू जिन जवाहरात का
कभी पड़े थे इन्हीं हाथों में एक पत्थर की तरह
सूर का नीर
नीर हूं सूर का
कैसे छोडूं नैन
अंधियारे से संगत अपनी
उजियारा करे बेचैन
रास्ते
सरपट राह मेरी मंज़िल तक
बस चौराहों पर अटकते हैं
सवेरा होगा
कुछ दूर, नहीं बहुत पास
कुछ है, कुछ है वहां
एक आकृति कुछ धुंधली-सी
इधर ही आती
नहीं, मैं ही चलूं वहां
देखूं तो क्या वही है
जिसकी है तलाश मुझे
अरे! यह घुप अंधेरा कहां से आया
कहां गई वो
शुरू फिर वही तलाश
जरूर कोई बात है
तभी तो आई ये अमावस-सी रात है
शायद मुझे रोशनी की तलाश है
वह आकृति नहीं भटकाव था
डगमगाया तभी तो मेरा पांव था
होगी एक नई सुबह
न आकृति होगी... न अंधेरा होगा...
सिर्फ सवेरा होगा...
दिल्ली में
दिल की दिल में रह गयी दिल्ली में
दिल ने सोचा था दिल की करेंगे
दिल आज भी है अपना
दिल्ली भी हो गयी अपनी
न जाने कहां गये वो दिलवाले
जिनकी भरोसे चले आये हम दिल्ली में
ख़ुद का हो गर भरोसा
ठहर! इस दिल्ले में
वरना वजुद खाक में मिल जाये
ख़ुद तक को ख़बर न हो दिल्ली में
विक्षिप्त है वर्तमान
विक्षिप्त है वर्तमान
बता इतिहास किसने किया इसका अपमान
जन्मा तो यह तेरे ही कोख से
था मासूम, अबोध, नादान
आह्लादित था भविष्य देख इसकी मुस्कान
विक्षिप्त है वर्तमान
इतिहास कहता है:
मैं हूं इसका साक्षी
मुझे है इस सब का ज्ञान
सुनों दोषियों के षडयंत्र की दास्तान
पर रे भविष्य तू क्यों रोता है
पाया क्या था जो तू खोता है
पूछ मुझ इतिहास से दर्द क्या होता है
देखा है मैंने ईमान को लुटते हुए
सत्य के अरमान को घुटते हुए
यह वर्तमान जो तुझ तक पहुंचा है
कोशिश इसने भी कम न की थी
लेकिन अतीत पर दोषारोपण से बच न सका
तभी तो विक्षिप्त है वर्तमान
आवारगी
हवा हूं... हवा हूं...
बसंती हवा हूं...
चली हूं किधर से...
किधर को चली हूं...
न कोई पता है...
न कोई ठिकाना
दिल में आया जो...
तुमसे मिलने चली हूं...
न कोई ख़बर तेरा...
न कोई संदेश
ढ़ूंढ़ू किधर को-
अब तो आ जाओ
शमा जला जाओ...
अब न सही जाए...
ये आवारगी... ये आवारगी...
झोंका
कुछ दूर नहीं है
पास ही है आशियां मेरे यार का
चलो देख आयें
क्या उठता है ज़ज्बा उनमें भी प्यार का
तन्हा गुजर रहा था ज़िंदगी का सफर
वो आयें लेकर मंजर-ए-बहार
फिज़ाएं बदल गईं खुमार-ए-यार में
चले आयें वो ख़्वाबों के रास्ते दिल-ए-दिलदार में
इत्तलाह
चांद की रोशनी
सितारों की झिलमिलाहट
उसमें हौले से तेरे कदमों की आहट
मुझे तुम मेरी ओर आते लगे...
यह तेरा बहकना कब हुआ?
बहके थे तुम पहिले जब...
मुझे इत्तलाह दे दी थी...
आज क्यों मेरा यक़ीन
तुम्हारी ख़्वाहिश ना रही?...
दर्द
आपकी आवाज़...
जो न पहुंचे कानों में
कदम पहुंच गये मयखाने में
ख़ता कुछ मुझसे हुई
या कर बैठे आप यह अनजाने में?
शिकवा गर मुझसे थी
बेखौफ कह जाते
यूं दर्द तो न दिया होता दिल-ए-नादां को
ग़लियारा
जमाने ने जो दर्द दिया...
उसका नहीं है ग़म...
ग़लक करने को पी लेते हैं
कभी ज्यादा... कभी कम...
कहता हूं तुझको -
मत छेड़ उन यादों को...
ग़लियारों में कहीं खो ना जायें हम
आये तो आये उनकी यादें
वो ना आयें...
संभाल लेना तब मुझको
जो ख़ुद को ही भूल जायें हम...
कीमत
चले थे हम...
कारवां साथ था
मंज़िल है करीब
मुड़कर जो देखा
ना कारवां... न कोई साथ...
सिर्फ है गुबार-ए-ख़ाक...
अपनों का इल्म ना रहा
मंज़िल की चाह में...
ऐ ख़ुदा!
उनसे कहना
बढ़ते कदम ही अब मेरी ज़ूश्तज़ू है
पर ये ना समझना
कि कारवां कि चाह अब नहीं है दिल में...
संगम
(संदर्भ:- भैरवी एक पहाड़ी नदी है और दामोदर एक नद. इनका पवित्र संगम छोटानागपुर के रजरप्पा नामक स्थान पर होता है.)
पहाड़ो से चली चंचला
लहरा के अपनी अंचला
कभी किशोरी-सी संवरती
सकुचाहट इसमें है नवयौवना-सी
कलकल की संगीत लहरी
गाती वो सुनाती वादियों को
चली मैं पिया से मिलन
जली है आज दिल में प्रीत की अगन
उसका सांवरा दामोदर... होता बावरा बलम
आती देख प्रियसी को बांहें फैलाये खड़ा है
मधुर मिलन की घड़ी आई है करीब
मिलते है दो प्रेमी सास्वत प्रेम के वशीभूत
प्रकृति के सत्य को स्वीकार
किया स्वयं को एक-दुसरे में अंगीकार