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मेरे पत्रकार बनने में मेरी कोई ग़लती नहीं है. सारा दोष इन पत्रों को छापने वाले संपादकों के मथ्थे:-
( रांची एक्सप्रेस, प्रतियोगिता दर्पण, जनसत्ता, इंडिया टुडे और प्रभात खबर के संपादकों के प्रति मेरा हार्दिक आभार, जिन्होंने विद्यार्थी जीवन में मेरे पत्रों को छापकर मेरा हौसला बढ़ाया )
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रांची एक्सप्रेस, 30 दिसम्बर, 1994 किसी भी संपादक को लिखा गया मेरा पहला पत्र
संत कोलम्बा भवन की दु:स्थिति
गौरवशाली अतीत को अपने में समेटे संत कोलम्बा महाविद्यालय के भवन आज अपने भविष्य के प्रति शंकित हैं. महाविद्यालय के मुख्यद्वार से प्रवेश करते ही प्रशासन एवं प्रबंधन की घोर उपेक्षा के शिकार भवन अपनी व्यथा कहते सहज ही मिल जायेंगे. प्रांगण में स्थित प्रत्येक भवन जैसे पूछ रहे हों कि क्या निरंतर जर्जरता एवं बदहाली ही शिक्षा के इस विशाल मंदिर की नियति है? कभी महात्मा गांधी और कवि गुरू रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ओजस्वी वाणी सुनने वाला व्ह्यीटले हॉल आज मकड़ों के जालों और चिड़ियों के घोसलों से भरा पड़ा है. यहां का विशाल साइकिल स्टैण्ड लगभग ध्वस्त ही हो चुका है. यहां की लाइब्रेरी और हॉस्टल मेस आस-पास सफाई के अभाव में घने जंगल में भूत बंगलों का अभास देते हैं. मेन हॉस्टल की एक सीढ़ी तो पूर्णत: ध्वस्त ही हो गई है. कमोवेश यहां सभी भवनों की यही स्थिति है.
अगर इस महाविद्यालय की बदहाली की यही गति रही तो वह दिन दूर नहीं जब नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों की भांति आधुनिक बिहार का यह प्राचीनतम महाविद्यालय भी इतिहास की बात हो जायेगा. अत: प्रशासन के साथ-साथ संत कोलम्बा महाविद्यालय अपने उन पुराने छात्रों का सहयोग चाहता है जो आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अपना प्रतिष्ठित स्थान रखते हैं.
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प्रतियोगिता दर्पण, जुलाई, 1996
पत्रिका के मई 1996 के अंक का संपादकीय 'प्रेम का वास्तविक अर्थ जानिए' अत्यंत ज्ञानवर्धक है. वर्तमान विश्व में तर्क की अत्यधिक महत्ता ने हृदय में भाव शुन्यता की स्थिति उत्पन कर दी है. इससे मनुष्य अपने जीवन के उदेश्यों के प्रति भ्रम की स्थिति में पड़ गया है. इस भ्रम की स्थिति से उबरने के लिए तर्क को एक सीमा तक ही महत्व दिया जाए. जिससे विश्व के प्रति भावनात्मक जुड़ाव संभव हो सके जो आगे बढ़कर प्रेम में रूपांतरित हो जाए. प्रेम में सर्वस्व न्यौछावर करने और कराने की शक्ति होती है. यही समर्पण विश्व को एक विकासमान कलाकृति के रूप में देखने और समझने का आधार प्रदान करेगा जिससे विश्व श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बनने की ओर गतिमान होगा.
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प्रतियोगिता दर्पण, जून, 1999
'प्रतियोगिता दर्पण' के अप्रैल 99 के अंक में प्रकाशित लेख 'भारत में नियोजन एवं तंत्र' में श्री पवन कुमारजी ने भारत में योजना से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला है.
भारत के सम्बन्ध में नियोजन सिर्फ योजनाओं की सूची या आंकड़ों का जोड़-तोड़ मात्र नहीं है. यह देश की प्रगति का लेखा-जोखा है जो इसकी समस्याओं और कठिनाइयों के भारी-भरकम मात्रा एवं विविध प्रकारों से इसके संघर्ष की दास्तान है, जो कदम-दर-कदम इन समस्याओं पर काबू पाने में मदद करती है. कभी-कभी ये योजनाएं अति महत्वाकांक्षी भी साबित हुई है और तनाव का कारण बने हैं, लेकिन इससे भयभीत होने की कतई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रगति तो केवल तभी सम्भव है जब हम अपने प्रयासों एवं क्षमताओं को लगभग पूर्णता की हद तक बढ़ाएं.
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जनसत्ता, 19 फरवरी, 1999
नरसंहार के पीछे
बिहार में नरसंहारों के मूल में देखें तो दो कारण हैं- पहला औधोगिक अव्यवस्था और दूसरा भूमि सुधारों की ओर ध्यान न देना.
कोई भी व्यक्ति या समूह चाहे वह किसी भी विचारधारा को मानने वाला क्यों न हो, उसकी पहली जरूरत हमेशा रोटी रही है. बिहार की औधोगिक अव्यवस्था के कारण जनता रोटी की जरूरत को पूरा करने के लिए भूमि से ही जुड़ी रही. इससे वहां की जनसंख्या की भूमि पर निर्भरता बढ़ती गई, नतीजतन संघर्ष की पृष्ठभूमि पूरी तरह तैयार हो गई और नरसंहार उसी की परिणति है.
निश्चित रूप से पिछली निर्वाचित सरकार इस समस्या के समाधान में असफल रही है और परिणामत: बिहार में आज राष्ट्रपति शासन है. लेकिन राष्ट्रपति शासन भी इसका समाधान नहीं है. इसके लिए किसी निर्वाचित सरकार के दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाने की जरूरत है.
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जनसत्ता, 20 मार्च, 1999
किसका विकास
आजादी के पचास साल बाद भी हम अपने कथित विकास के लक्ष्यों से काफी पीछे दीखते हैं. इसका कारण है कि विकास की योजनाओं के वर्तमान स्वरूप में समाज के निचले तबके के लोगों की मजबूरियों और जरूरतों की अनदेखी की गई है. सच पूछा जाए तो अभी तक यह भी तय नहीं किया है कि आखिर विकास किसका करना है? यहां तो बस एक ही सिद्धांत पर काम हो रहा है 'एक से छीन कर दूसरे और दूसरे से छीन कर तीसरे को दे दो...'
इस तरह विकास के लंबे-चौड़े दावे करने का आधार तैयार हो जाता है. लेकिन समग्र विकास अभी दूर की कौड़ी है. इसका स्पष्ट उदाहरण विभिन्न विकास परियोजनाओं के नाम पर विस्थापितों के अनेक समूहों को उनका उचित अधिकार न मिल पाना है.
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इंडिया टुडे, 11-17 मार्च, 1999
प्रतिभा की उपेक्षा
सरकार द्वारा एक ओर तो प्रतिभा पलायन की बात करना और दूसरी ओर स्थापित प्रतिभाओं पर 'साबित कीजिए' का व्यंग्य कसना उसकी नीयत को स्पष्ट करता है. इस बार इनका शिकार एम्स (असली बीमारी, 3 मार्च) के प्रतिभावान डॉक्टर हुए हैं.
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इंडिया टुडे, 8-14 मार्च, 1999
देरी तो घातक
आखिर ऐसा क्यों होता है कि जब समस्या ठीक सिर पर होती है तभी हम भारतीयों की नींद खुलती है (वाइ-2 के का गहराता तिलस्म, 31 मार्च). यह ठीक है कि वाइ-2 के से संबंधित हमारी समस्या विकसित देशों जितनी विकराल नहीं है, फिर भी इस संबंध में देरी घातक है. इससे 21वीं सदी में सूचना के क्षेत्र में अग्रणी देश बनने के हमारे दावे कमजोर होंगे. |
इंडिया टुडे, 15-21 अप्रैल, 1999
नुक्सान पाठक का
अखबारों के लिए पाठक सबसे महत्वपूर्ण होते हैं. कीमत कम कर्ने का लालीपॉप थमाकर पाठकों के प्रति अपनी घटती जिम्मेदारी एवं विज्ञापनदाताओं पर बढ़ती निर्भरता को ये अखबार (दैनिकों का द्वंद्व, 7 अप्रैल) झुठला नहीं सकते. इस सारी कवायद में पाठकों को शुरुआती फायदा जरूर दिखता है परंतु अंतत: नुक्सान पाठक का ही होने वाला है.
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इंडिया टुडे, 29 अप्रैल-5 मई, 1999
अमूल्य योगदान
किसी भी धर्म के लिए उसकी जीवंतता उसका सबसे बड़ा गुण होता है (साहस व शौर्य की गाथा, 21 अप्रैल) और इस जीवंतता को बनाए रखना उसके अनुयायियों का कर्तव्य है. इस लिहाज से सिख धर्म और मानवता के लिए खालसा पंथ का योगदान मह्त्वपूर्ण है. अपनी त्रिशदी के मौके पर आज खालसा इस मुकाम पर खड़ा है, जहां उसे कुछ आधुनिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. उम्मीद है, यह पंथ इससे और मजबूत होगा.
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इंडिया टुडे, 30 सितम्बर-6 अक्तूबर, 1999
उत्कृष्ट कहानी
रॉबिन शॉ पुष्प की कहानी 'नरक' (15 सितंबर) भाषा-शैली की दृष्टि से उत्कृष्ट कहानी है. कथावस्तु इसका प्रबल पक्ष है. समाज के गिरते मानव मूल्यों के बीच अपने अस्तित्व के संकट को लेकर डूबते उतराते नायक-नायिका और समाज के अंतर्द्वंद्व महत्वपूर्ण हैं.
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इंडिया टुडे, 23-29 दिसंबर, 1999
कुछ नया नहीं
पाकिस्तान में लोकतंत्र के खिलाफ नापाक खेल शुरू से ही खेला जाता रहा है. वहां सिर्फ चेहरे ही बदलते हैं. ऐसे में यदि नवाज़ शरीफ को फांसी होती है तो खतरनाक जरूर होगा लेकिन चौंकाने वाला बिल्कुल नहीं.
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इंडिया टुडे, 5-12 जनवरी, 2000
घटती दूरी
नब्बे के दशक में भारतीय सिनेमा के दर्शकों की अभिरुचि में बदलाव आया है. इस बदलाव से मुख्यधारा के सिनेमा और समांतर सिनेमा के बीच दूरी घटी है. करिश्मा कपूर का जुबैदा बनना (दो धाराओं का दिलचस्प संगम, 29 दिसम्बर) इसी दिशा में सार्थक कदम है. इससे श्याम बेनेगल को बड़ा कैनवास और करिश्मा के अभिनय को नई ऊंचाई मिलेगी.
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इंडिया टुडे, 10-16 फरवरी, 2000
प्रगति से तिलमिलाए
विमान अपहर्ताओं को हम दुश्मन कहते हैं, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को बंधक बनाने वाले हड़तालियों को क्या कहेंगे? इनमें वही लोग शामिल हैं जो सुविधाएं हासिल करने में सबसे आगे रहते हैं, लेकिन जब उत्तरदायित्व तय करने की बात आती है तो उनके चेहरे की हवाइयां उड़ने लगती हैं.
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प्रभात खबर, 24 मई, 2000
हिंदी की हालत
यह सुनकर बड़ा अच्छा लगता है कि हिंदी एक जीवंत भाषा है, लेकिन दिल से आह निकल जाती है, जब किसी मृत होती भाषा के शुरुआती लक्षण हिंदी में भी दीख पड़ते हैं. इस स्थिति के लिए भाषाई कारण कम, राजनैतिक कारण अधिक उत्तरदायी हैं. इन कारणों का विश्लेषण करना मैं नहीं चाहता. मुझे हिंदी की जीवनी शक्ति पर पूरा भरोसा है. डर है तो सिर्फ हिंदी के उन तथाकथित समर्थकों से, जो हिंदी के विकास के नाम पर हिंदी की ही जड़ खोदने में लगे हैं. दो सौ वर्षों की गुलामी के दौरान अंग्रेजी के भाषायी साम्राज्यवाद की शिकार रही हिंदी का, आजादी के बाद पोषण के बदले इन कथित हिंदी समर्थकों ने हिंदी की सहयोगी भाषाओं (जिन्हें उन्होंने बोली कहा है) के शोषण का कुचक्र शुरू कर दिया. ये हिंदी की अपनी ही जड़ों में मठ्ठा डालनेवाली बात हो गयी. आज जरुरत इस बात की है कि हिंदी की सहयोगी भाषाओं का स्वतंत्र विकास सुनिश्चित किया जाए, इससे अंततोगत्वा हिंदी न केवल राष्ट्रभाषा, वरन विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर होगी.
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