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बीबीसी हिंदी डॉटकॉम को लिखे मेरे पत्र:-

हिंदी के पाठक क्या चाह रहे हैं?
रविवार, 11 सितंबर, 2005 को प्रकाशित

यह मुमकिन नहीं कि सबको एक ही दिशा में हांका जा सके. जुदा पाठकों की पसंद अलहदा हो सकती है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य का एक काम मनोरंजन भी है. साथ ही जब किताबें ख़रीदी और बेची जाती हैं तब बाज़ार भी यहाँ उतना ही प्रासांगिक हो जाता है. साहित्य गंभीर हो या घासलेटी सबका वजूद होना चाहिए क्योंकि पाठक आज विकल्प चाहता है. शशि सिंह, मुम्बई
कहाँ जा रही भारतीय जनता पार्टी?
गुरुवार, 08 सितंबर, 2005 को प्रकाशित
कांग्रेस को सत्ता सुख का रोग लगने में चालीस साल लगे थे, लेकिन भाजपा तो सिर्फ छह साल में ही बेहाल हो गई. उनके फ़ैमिली डॉक्टर (संघ) भी इसका इलाज ढूंढ पाने में नाकाम रहे हैं. मेरी समझ से पार्टीजनों को अपने खान-पान और रहन-सहन में संयम और परहेज़ की दरकार है. अन्यथा भारतीय लोकतंत्र में एक बेहतर विकल्प बनने की योग्यता वाली यह पार्टी असमय ही दम तोड़ देगी. शशि सिंह, मुम्बई
कैसे रुक सकती है घरेलू हिंसा?
मंगलवार, 06 सितंबर, 2005 को प्रकाशित
महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लिए 'मर्दानगी की कहर से बचने के लिए मर्द की छ्त्रछाया की जरुरत' वाली मानसिकता ही जिम्मेदार है. अब चूंकि मुक्ति तो मर्द की सत्ता से चाहिए लिहाज़ा पहल महिलाओं को ही करनी पड़ेगी. आज पुरुषों का एक बड़ा वर्ग महिलाओं को बराबरी का दर्जा देकर उनकी मुक्ति चाहता है मगर उन्हें भी महिलाओं की तरफ से उठने वाली आवाज़ का ही इंतजार है. शशि सिंह, मुम्बई
खिलाड़ी नंबर वन
शुक्रवार, 02 सितंबर, 2005 को प्रकाशित
सच पूछिए तो शुरुआती दौर की मीडिया हाइप की वजह से मुझे सानिया मिर्जा के नाम से भी चिढ़ हो गई थी, मगर इस हैदराबादी बाला ने अपने खेल से न सिर्फ मेरा बल्कि अपने तमाम आलोचकों का मुंह बंद कर दिया है. आखिरी वक़्त तक संघर्ष कर सकने की उसकी क़ाबिलियत मुझे भा गई. यह गुण आम भारतीय खिलाड़ियों में बमुश्किल ही देखने को मिलता है. लिहाजा मेरे लिए "सानिया इज द बेस्ट". शशि सिंह, मुम्बई
मीडिया की दख़लंदाज़ी की ज़िम्मेदारी किस पर?
गुरुवार, 01 सितंबर, 2005 को प्रकाशित
यूं तो मीडिया को किसी के निजी जिंदगी में तांक-झांक की अनुमति नहीं होनी चाहिए. अगर मीडिया ऐसा करती है तो मेरी समझ से अधिकतर मामलों में कहीं-न-कहीं सितारों ने ही उन्हें बढ़ावा दिया होता है. कई बार तो सितारे अपने अंडरवियर-बनियान के ब्रांड तक मीडिया को बताते दिखे हैं. तब उन्हें समस्या नहीं होती क्योंके तब तो उन्हें प्रचार मिल रहा होता है लेकिन यही प्रचार जब उनके लिए परेशानी का सबब बनता है तब निजी ज़िंदगी की दुहाई दी जाने लगती है. शशि सिंह, मुम्बई
ऐतिहासिक फ़िल्मों के साथ कितना न्याय?
शुक्रवार, 26 अगस्त, 2005 को प्रकाशित
हमारे फ़िल्मकारों से जब मौलिक फिल्मों की उम्मीद की जाती है तब तो वे यहां-वहां से उठाकर नक़ल परोसते हैं. वहीं जब उनसे साहित्य या इतिहास की कहानी को हूबहू पेश करने की अपेक्षा होती है तब सिनेमाई लाइसेंस के नाम पर कहानी में अपनी तरफ़ से कल्पना का पुट जोड़कर शान बघारते फिरते हैं. ऐसे फिल्मकारों को न तो इतिहास के तथ्यों की परवाह है, न साहित्य के प्रति निष्ठा और न ही उनमें आज कुछ मौलिक करने की प्रेरणा ही बाकी है. निष्कर्ष यह कि फिल्ममेकिंग आज सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यवसाय है इसे कला का स्वरूप मानना मुग़ालते में रहना होगा. शशि सिंह, मुम्बई
कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद
शनिवार, 30 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
प्रेमचंद हिंदी साहित्य के उस फ़कीर का नाम है जो किसी भी बादशाह से ऊँची हैसियत रखता है. आज उनके नाम पर दुकानें तो बहुत खुली हैं पर क्या इन दुकानदारों में से किसी में भी यह औकात है कि प्रेमचंद जैसा कुछ गढ़कर बता दे? शशि सिंह, मुम्बई

प्रेमचंद पर विशेष
कथा सम्राट प्रेमचंद की 125 वीं जयंती पर बीबीसी की विशेष प्रस्तुति

प्रेमचंद

मुम्बई की बारिश और लोग
गुरुवार, 28 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
सिर्फ मैं ही नहीं, मुम्बई में रहने वाला शायद ही कोई होगा जिसके पास इस ऐतिहासिक बारिश से जुड़ा कहने को कोई अफसाना ना हो. खुद मैं 26 तारीख की सुबह का ऑफिस गया. आज 28 की सुबह घर लौटा हूं. 27 तारीख को ऑफिस की तरफ बस की सुविधा मुहैया कराई गई, मगर सड़कों पर रेंगती टैफिक की वजह से तीन घंटे में आठ किलोमीटर भी नहीं जा पाया तो उस दिन ऑफिस से 40 किलोमीटर दूर अपने घर जाने का इरादा छोड़ वापस आठ किलोमीटर का सफ़र पैदल तयकर ऑफिस के करीब रहने वाले एक दोस्त के घर शरण ली. आज सवेरे आंशिक रूप से लोकल ट्रेनों की आवाजाही शुरू होने पर ही घर पहुंच पाया. शशि सिंह, मुम्बई
पुलिस की कार्रवाई कितनी जायज़
सोमवार, 25 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
यह सही है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ कार्रवाई में सुरक्षा बल भारी तनाव में काम करते हैं जिससे ऐसी ग़लतियाँ संभव हैं. दरअसल ऐसे मामलों में ग़लती और जानबूझकर की गई कार्रवाई में फ़र्क कर पानी टेढ़ी खीर है... अपनी साख बचाने के लिए इरादतन या कहें कुंठावश की गई हत्या के मामले में माफ़ी नहीं मिलनी चाहिए. शशि सिंह, मुम्बई
भारत-अमरीका परमाणु समझौता
मंगलवार, 19 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
तीन दशक पहले जिस संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष ने हमारी नेता को 'डायन' कहा. आज वही देश हमारे साथ परमाणु सहयोग का करार करता है. यह निश्चित ही उस देश की बुनियादी सोच में आए बदलाव को दर्शाता है. साथ ही इस सहयोग से भारत की हैसियत में हुए इजाफ़े को भी मान्यता मिली है. शशि सिंह, मुम्बई
भारतीय क्रिकेट टीम पर राय
सोमवार, 18 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
राहुल द्रविड़ की प्रतिभा पर शायद ही किसी को शक हो. जिस तरह उन्होंने हर मोर्चे पर खुद को साबित किया है, उम्मीद की जानी चहिए कि बातौर कप्तान भी उनके जलवे होंगे. जहां तक गांगुली का सवाल है उनके खास कप्तानी तेवर का भारतीय क्रिकेट के इतिहास में कोई सानी नहीं है. उन पर प्रतिबंध के मामले में अगर सबकुछ ठीक रहा तो कप्तान के रूप में उनकी वापसी पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. वैसे भी यह तो अच्छा ही है कि टीम के पास कप्तान के लिए एक से अधिक विकल्प मौजूद हों. शशि सिंह, मुम्बई
ताजमहल पर मालिकाना हक़ किसका है?
गुरुवार, 14 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
ताजमहल को लेकर उठा विवाद सिरे से ग़लत है. ताज की परवाह करने का दावा करने वालों का न तो किसी धर्म से कोई वास्ता है और न ही किसी संस्कृति की परवाह. इन सबकी निगाहें सिर्फ़ ताज से होने वाली कमाई पर टिकी हैं. वैसे भी ताजमहल किसी की बपौती नहीं है वह तो राष्ट्रीय धरोहर है जिसकी ज़िम्मेदारी किसी राष्ट्रीय संस्था क पास ही रहनी चाहिए. शशि सिंह, मुम्बई
लंदन के विस्फोटों पर प्रतिक्रिया
गुरुवार, 07 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
आतंकवादियों की कोई जाति, धर्म, आस्था या राष्ट्र नहीं होता. वे तो भटके हुए ऐसे लोग हैं जो मानवता के लिए भस्मासुर साबित हो रहे हैं. वैसे इन भस्मासुरों को विध्वंस की ये ताक़त कहीं न कहीं इन महादेवों के ही आशीर्वाद से मिला है जो इनकी हरकतों से बिफरे पड़े हैं. शशि सिंह, मुम्बई
लाइव 8 से क्या फ़ायदा होगा?
शनिवार, 02 जुलाई, 2005 को प्रकाशित
दुनिया भर में एक साथ संगीत समारोह आयोजित करके धनी देशों का ध्यान अफ्रीका की ग़रीबी की ओर खींचने की कोशिश! ग़म भूलाने को ग़ालिब ख़्याल अच्छा है, मगर नतीजा शायद ही कुछ निकले. वैसे एक बात तो है कि ऐसे समारोह भले ही अमीर देशों का ध्यान न खींच पाएं पर दुनिया भर के संगीतप्रेमियों की तवज्जो ज़रूर हासिल कर लेते हैं. शशि सिंह, मुम्बई
कॉल सेंटर की निगरानी कैसे हो?
गुरुवार, 30 जून, 2005 को प्रकाशित
भारत में एक उफान की तरह शुरू हुए कॉलसेंटर व्यवसाय में गुणवत्ता तो है मगर गोपनीयता बनाए रखने के लिए थोड़ी निगरानी की ज़रुरत है. साथ ही मौजुदा क़ानून के बारे में कर्मचारियों में बेहतर समझ विकसित करना भी ज़रुरी है. भारतीय कॉलसेंटर के कर्मचारियों में उत्साह तो बहुत देखा जाता है. इसी अनुपात में यदि उनमें ज़िम्मेदारियों का अहसास भी जोड़ने में कामयाबी मिल गई तो भविष्य में न सिर्फ ग्राहकों और कंपनियों का भरोसा बढ़ेगा बल्कि भारतीय बीपीओ उद्योग नई ऊचाइयाँ तय करेगा. शशि सिंह, मुम्बई

मंटो

सआदत हसन 'मंटो' पर बीबीसी की विशेष प्रस्तुति

मुख़्तार माई मामले पर राय
सोमवार, 27 जून, 2005 को प्रकाशित
ऐसे मामलों के सिर्फ़ मीडिया में आने से कुछ सकारात्मक नहीं होने वाला. ज़रूरत इस बात की है कि दोषियों को कड़ी सज़ा मिले. शशि सिंह, मुम्बई
पसंदीदा किताब कौन सी है?
सोमवार, 20 जून, 2005 को प्रकाशित
कई किताबों ने अलग-अलग ढंग से मुझ पर अपना प्रभाव छोड़ा है. फिर भी मैं कह सकता हूं कि प्रेमचंद की 'गोदान' मेरी पसंदीदा किताब है. प्रेमचंद का हर शब्द मुझे प्यारा है और उनके आदर्शवाद के तो क्या कहने. लेखन में उनकी कोई सीमाएं नहीं थीं लेकिन समाज में एक लेखक की सीमाओं से क्षुब्ध प्रेमचंद ने अपने इस उपन्यास में बिना आदर्शवादी विकल्प के सीधे-सीधे यथार्थ पेशकर मुझे चौंका दिया. यह मेरे प्रिय लेखक की अपने आप से बग़ावत थी जो गाहे-बगाहे मुझे आज भी झकझोरती रहती है. शशि सिंह, मुम्बई
दोहरी नागरिकता में इतनी देर क्यों?
गुरुवार, 16 जून, 2005 को प्रकाशित

नागरिकता क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव संसद में मानसून सत्र में पेश किया जाएगा, यहां तक तो ठीक है. चर्चा हो तो संभवत: प्रस्ताव पास भी हो जाए. समस्या तो यह है कि सत्र के दौरान किसी दागी मंत्री का भूत जाग जाएगा या मुमकिन है किसी नेता का अपमान संसद के अपमान से बड़ा हो जाए. जब इतने अहम मुद्दे हमारे माननीय सांसदों के सामने हों तो भला नागरिकता क़ानून में संशोधन जैसे छोटे-मोटे कामों के लिए वक्त कहां बचेगा? शशि सिंह, मुम्बई
क़ानून के सामने 'ख़ास लोग'
सोमवार, 13 जून, 2005 को प्रकाशित

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत के लिए 'खास' और 'आम' कानून दुर्भाग्य की बात है. इस तरह का दोहरा व्यवहार ही वंचित वर्ग में असंतोष का बीज बोता है. यही बीज जब पेड़ बन जाते हैं तब उसे अलगाववादी, आतंकवादी, नक्सली और न जाने क्या-क्या नाम दे दिये जाते हैं. भई बात सीधी है, झोपड़े का हक़ मार कर बंगलों की चारदीवारी ऊंची करनेवाले राजकीय कानून को भले तोड़-मरोड़ लें, मगर प्रकृति के न्याय से बच नहीं पाएंगे. शशि सिंह, मुम्बई
आडवाणी के बयान पर राय
सोमवार, 06 जून, 2005 को प्रकाशित

पता नहीं क्यों भाजपा और संघ परिवार के मुद्दे अक्सर भावनात्मक ही क्यों होते हैं. क्या फर्क पड़ता है यदि आडवाणी ने जिन्ना को 'धर्मनिरपेक्ष नेता' कह दिया. इसे तो मैं भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का इतिहास के प्रति दुराग्रहों के खुलते गांठ के रूप में देखता हूं. दो देशों के रिश्तों में सुधार के लिए यदि तथाकथित विचारधारा (अहं) से थोड़ा उन्नीस-बीस होना भी पड़े तो भी यह घाटे का सौदा नहीं होगा. पर हां, ऐसी ही उम्मीद हमें पाकिस्तान के दक्षिणपंथियों से भी होगी. शशि सिंह, मुम्बई
किस फ़िल्म ने छोड़ी गहरी छाप
शुक्रवार, 03 जून, 2005 को प्रकाशित

'मदर इंडिया' से मैं सबसे ज़्यादा प्रभावित रहा हूँ. फ़िल्म का कथानक, संवाद, अदाकारी, संगीत या फिर निर्देशन... हर मोर्चे पर यह फ़िल्म बेहतरीन सिनेमा का नमूना तो पेश करती है, मगर यह फ़िल्म मेरे लिए सिर्फ़ सिनेमा न होकर सामाजिक सरोकारों का दस्तावेज़ है. यह फ़िल्म उस दौर में आई जब आज़ाद भारत अपने को एक राष्ट्र रूप में स्थापित करने की जद्दोजहद में लगा था. मेरी नज़र में यह फ़िल्म किशोर राष्ट्र को उम्दा संस्कारों की सीख देने वाली नायाब कलाकृति है. शशि सिंह, मुम्बई
फ़िल्मों में धूम्रपान पर राय
बुधवार, 01 जून, 2005 को प्रकाशित

सिनेमा और टीवी के पर्दे पर सिगरेट के इस्तेमाल पर लगी रोक बेशक एक सराहनीय कदम है लेकिन धूम्रपान से होने वाले नुक़सानों के ख़िलाफ़ ऐसे क़दम तब तक नाकाफ़ी ही साबित होंगे जब तक कि इसकी जड़ यानी कि इसके निर्माण पर रोक न लगाई जाए. भला नैतिकता का यह कैसा पाठ कि एक तरफ तो हमारी सरकार ऐसी पाबंदियों कि बात करती है वहीं दुसरी तरफ तम्बाकू उद्योग से प्राप्त होने वाले भारी राजस्व को भी छोड़ना नहीं चाहती. शशि सिंह, मुम्बई
क्या आप भारतीय प्रधानमंत्री से सहमत हैं?
सोमवार, 30 मई, 2005 को प्रकाशित

प्रधानमंत्री का यह बयान सौ फ़ीसदी सही है. कश्मीर के बीच की सीमा को अर्थहीन बनाना ही कश्मीर समस्या का सबसे बेहतर समाधान होगा, क्योंकि तब न रहेगा बांस न बजेगी बांसूरी. मेरी दुआ है कि अगर हम इसी तरह सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम 1947 की कड़वी यादों को भूलाकर जर्मनी के इतिहास को दोहराएँगे. शशि सिंह, मुम्बई
सुनील दत्त से जुड़ी यादें
बुधवार, 25 मई, 2005 को प्रकाशित

जितना सार्थक जीवन दत्त साहब ने जिया उतना कम ही लोगों को नसीब होता है. वे एक उम्दा कलाकार और ईमानदार राजनेता ही नहीं बल्कि इस सबसे बढ़कर एक बेहतरीन इनसान थे. मुझे यह कहते हुए तनिक भी झिझक नहीं कि 75 साल का यह बुजूर्ग हम युवाओं से कहीं ज्यादा युवा था. दत्त साहब हमें आपकी कमी हमेशा खलेगी. शशि सिंह, मुम्बई
क्या मीडिया सही भूमिका निभा रहा है?
सोमवार, 16 मई, 2005 को प्रकाशित

'सबसे तेज़' बनने के चक्कर में अक्सर मीडिया की भद्द पिटती रही है. 'सबसे तेज़' का शार्टकट सनसनी है और यह सनसनी जंक फ़ूड की तरह है जिसे खाकर चटख़ारे तो लिये जा सकते हैं मगर उसकी क़ीमत समाज के बिगड़ते स्वास्थ्य के रूप में चुकानी पड़ती है. 'न्यूज़वीक' की अपुष्ट ख़बर की वजह से 15 लोगों की मौत यही ज़ाहिर करता है कि 'न्यूज़वीक' जैसे मीडिया संगठनों को या तो अपनी ताक़त का अंदाज़ा नहीं है या फिर वे इसके बेजा इस्तेमाल का ही मन बना चुके हैं. शशि सिंह, मुम्बई
हड़ताल का सहारा कितना उचित है?
सोमवार, 16 मई, 2005 को प्रकाशित

हड़ताल बेशक एक अनुत्पादक और नकारात्मक प्रतिक्रिया है. यह संस्थान और कर्मचारियों के आपसी हितों के टकराव का सतह पर आ जाने सूचक भी है. इसे अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र का द्वंद्व भी माना जा सकता है. मेरा मानना है कि इस नाजुक मुद्दे पर दोनों पक्षों को लाभ-हानि और अहं के संकुचित दायरे से ऊपर उठकर सोचने की जरुरत है. ऐसा करके ही इस दुनिया को प्रगतिशील और सौहार्दपूर्ण जगह बनाई जा सकती है. शशि सिंह, मुम्बई
बीबीसी हिंदी की पैंसठवीं सालगिरह
सोमवार, 09 मई, 2005 को प्रकाशित

ख़बरों की दुनिया में बीबीसी का न तो कभी कोई सानी था न आज है. आज मैं ख़ुद एक पत्रकार हूँ लेकिन बीबीसी का श्रोता और पाठक बने रहने का सुख एक अलग ही अहसास है? हमारे दादाजी के समय शुरू हुआ बीबीसी हिंदी का सफ़र हमारे पोतो-परपोतों और उससे भी आगे की पीढ़ियों तक अनवरत जारी रहे यही मेरी दुआ है. शशि सिंह, मुम्बई
ब्रितानी चुनाव पर प्रतिक्रिया
शुक्रवार, 06 मई, 2005 को प्रकाशित

टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में लेबर पार्टी का एक बार फिर से सत्ता में आना नि:संदेह ब्रिटेन के इतिहास के लिए एक बड़ी घटना है. ब्लेयर को चुनकर अंग्रेजी जनता ने उनकी पीठ तो थपथपाई है, मगर जीत की बढ़त को कम करके इराक पर उनकी नीतियों के लिए हल्के से उनके कान भी मरोड़े हैं. शशि सिंह, मुम्बई
आमने-सामने और आप
बुधवार, 27 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित

हर समस्या का अपना समाधान खुद उस समस्या में ही निहित होता है. बेशक पिछले कुछ समय में संसद की गरिमा अपने निचले स्तर पर जा पहुंची है, मगर संसद में पहुंची युवा पीढ़ी इस मामले में संवेदनशील मालूम पड़ती है. मुझे भारतीय लोकतंत्र की ताकत और इस उत्साही पीढ़ी के तेज पर पूरा भरोसा है. बस थोड़ा इंतजार कीजिए... शशि सिंह, मुम्बई
क्या नेताओं को इस्तीफ़ा देना चाहिए?
मंगलवार, 26 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित

किसी भी संस्था या विभाग का प्रमुख होने के नाते हर अच्छी-बुरी बात की नैतिक ज़िम्मेदारी सीधे मंत्री की बनती है. जिस तरह किसी भी छोटे-बड़े काम का श्रेय लेने के लिए मंत्री महोदय उतावले रहते हैं ठीक उसी तरह दुर्घटनाओं या विभागों में भ्रष्टाचार की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की बनती हैं. लिहाजा मेरा मत इस्तीफे के हक़ में है. शशि सिंह, मुम्बई
राजनीति से संन्यास
मंगलवार, 19 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित

अगर कॉरपोरेट शब्दावली में बात करें तो उम्रदराज राजनीतिज्ञों को कार्यकारी प्रमुख की जगह परामर्शदाता की भूमिका में आ जाना चाहिए, लेकिन सेवानिवृत्त कतई नहीं होना चाहिए. मैं उस युवा पीढ़ी को सौभाग्यशाली मानता हूं जो इनके अनुभव के मोतियों को अपने उत्साह के धागे में पिरोने में कामयाब हो पाते हैं. शशि सिंह, मुम्बई
क्या हो बदलाव बॉलीवुड में?
शुक्रवार, 15 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित

वो कहते हैं न कि 'क्वालिटी इज़ बेटर दैन क्वांटिटी'. हॉलीवुड और बॉलीवुड के साथ भी यही बात है. सिर्फ थोक के भाव में फिल्में बनाना ही बहादुरी नहीं होती, ज़रूरी यह है कि बॉलीवुड जो भी बनाए सोच-समझकर एक रणनीति के तहत बनाये. इसके लिए फिल्म निर्माण के हर मोर्चे पर तैयारी पुख़्ता करके ही निर्माताओं को मैदान में उतरना चाहिए. शशि सिंह, मुम्बई
भारत-चीन की नई शुरुआत?
सोमवार, 11 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित

चीन की सफलता से आज पूरी दुनिया चमत्कृत है. उसकी सफलता से चौंधियाया भारत भी अपनी कामयाबी के लिए मंथन में लगा है. मगर भारत को चीनी मॉडल की तरफ झुकने से पहले यह नहीं भूलना चाहिए कि वह चीन है और हम भारत. निरंकुश शासन के नेतृत्व में हासिल की गई उसकी चमक के पीछे एक खोखलापन है जो सोवियत संघ की तरह शासन के साथ कभी भी फीकी पड़ सकती है, मगर भारतीय भदेसपन ही भारत की ताकत है. शशि सिंह, मुम्बई
क्या बस सेवा से तनाव घटेगा?
बुधवार, 06 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित

श्रीनगर और मुज़फ़्फ़राबाद के बीच बस सेवा को लंबे समय तक जारी रखना आसान तो नहीं होगा मगर नामुमकिन भी नहीं है. दरअसल दोनों देशों की आवाम भले ही रिश्तों में बेहतरी चाहती है मगर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके लिए इन पड़ोसियों के बीच अमन वजूद पर संकट बन सकता है. मेरी यही दुआ है कि यह बस सिर्फ सड़क की दूरी ही नहीं दिलों की दूरी मिटाने में भी कामयाब हो. शशि सिंह, मुम्बई
पोप जॉन पॉल के बारे में राय
रविवार, 03 अप्रैल, 2005 को प्रकाशित

वैटिकन में 26 साल तक अपने अनुयायियों के पथप्रदर्शक के रूप में पोप ने ख़ुद को चर्च की चारदीवारी तक सीमित नहीं किया बल्कि अपनी भूमिका को नए आयाम दिए. शायद यही वजह थी कि दूसरे धर्म-संप्रदायों के लोगों के बीच भी वे समान रूप से लोकप्रिय रहे. इस शांतिदूत को मेरा नमन. शशि सिंह, मुम्बई
भारत में राज्यपाल की भूमिका
शुक्रवार, 04 मार्च, 2005 को प्रकाशित

राज्यों में राष्ट्रपति का प्रतिनिधि माना जाने वाला पद 'राज्यपाल' लोकतंत्र में आस्था रखने वालों के लिए ख़तरे की घंटी बन गया है. अब तक हम सिर्फ़ बाहर के देशों के बारे में सुना करते थे कि चुने हुए लोगों को सत्ता से महरूम रखा गया. वैसे अभी तक भारत में ऐसा तो मुमकिन नहीं हुआ है, मगर पिछले कुछ समय से कई राज्यपालों का जैसा मनमाना रवैया रहा है उसे देखकर डर ज़रूर लगता है. शशि सिंह, मुम्बई

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